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शूरसैनी रासो (सैनियों का इतिहास)

 

 

शूरसैनी रासो

(धर्मपालसुत कृत)

 

पंजाब, हिमाचल, जम्मू ,और पश्चिमोत्तर हरयाणा के सैनी भाईचारे का संक्षिप्त इतिहास

 

अक्टूबर,2022

 

(Pre-Print ‘Beta’Edition)

 

धर्मपालसुत

CopyrightNotice: This pre-print edition of Shoorsaini Raso (Dharampalsut Krit) book isbeing released for exclusive  use bymembers of Saini community of Punjab, Himachal Pradesh, Jammu and North WesternHaryana. Commercial use of this book, or any part thereof, without writtenpermission, is strictly prohibited and violators will be prosecuted to themaximum extent of the law.


शूरसैनी रासो

(धर्मपालसुत कृत)

 अथ मंगलाचरणम

जय महाराजा शूरसेन!

जय शूरसैनी बलदेव जी महाराज!

जय शूरसैनी कृष्ण जी महाराज!

जय अमर बलिदानी दाता शेर सिंह सैनी सलारिआ!

जय सती माई बुआ दाती!

जय सती माई बीबी गुरदित्ती!

जय अमर बलिदानी माता बीबी शरण कौर पाब्ला!

जय अत्रि कुल!

जय वृष्णि संघ!

जय यदु वंश!

मंगलाचरणम समाप्तम ।

 

पकड़ तुरक गन कउ करें वै निरोधा!

सकल जगत में खालसा पंथ गाजै!

जगै धर्म हिन्दुक , तुर्क दुंदभाजै!

उग्रदंति ।   

श्री भगौती जी सहाय! 

श्री मुखवाक पातशाही दसवीं!

अब सैनियोंका इतिहाससंक्षिप्त में

"हमनेपोरस नामकराजा उत्पन्नकरने काश्रेय पंजाबके यादवोंको दियाहै। (प्रयाग से)पुरु चन्द्रवंशिओंकी इसशाखा काउपनाम बनगया । इसे सिकंदरके इतिहासकारोंने पोरसकहा। शूरसेन केवंशज , मथुराके शूरसैनीसभी पुरुही थेयानी मेगेस्थेनेसके "प्रासिओई” ।"

(एनल्स एंड एंटीक्विटिसऑफ़ राजपुताना , कर्नल जेम्स टॉड, पृष्ठ 36 (कथित-कथन),1873 )

“सैनी अपनेउद्गम काअनुरेखण उसराजपूत शाखासे करतेहैं जो सबसेपहले हुएमुस्लमान आक्रमणोंसे हिन्दुओं कीरक्षा करनेके लिएयमुना केतट पर  दिल्ली केदक्षिण मेंमथुरा केनिकट अपनेठिकाने सेआये। "

(दी लैंड ऑफ़ फाइव रिवर्स ; पंजाब का एक आर्थिक इतिहास --- पृष्ठ 100, हुग कैनेडी ट्रेवस्किस , ऑक्सफ़ोर्डयूनिवर्सिटी प्रेस, 1928)

"शौरसैनी शाखावालेमथुरा उसके आसपास केप्रदेशों मेंराज्य करतेरहे। करौली केयदुवंशी राजाशौरसैनी कहेजाते हैं।  समय केफेर से मथुराछूटी औरसं. 1052  में बयानेके पासबनी पहाड़ीपर जाबसे। राजा विजयपालके पुत्रतहनपाल (त्रिभुवनपाल)ने तहनगढ़का किलाबनवाया। तहनपाल केपुत्र (द्वितीय)और हरिपालथे जिनकासमय सं1227 का है।  "

-नयनसी री ख्यातदूगड़ (भाषांतकार ), पृष्ठ 302

र्जुनद्वारा यदुवंशियोंको पंजाब में बसाने का प्रसंग विष्णु पुराण में आता है । श्री कृष्ण के पड़पौत्रवज्रनाभ को शक्रप्रस्थ अर्थात् इंद्रप्रस्थ (या वर्तमान दिल्ली)  का राजा बनाने का प्रसंग महाभारत के मौसलपर्व  में आता है। इनके वंशजों ने अफगानिस्तान तक का इलाका जीत लिया था अल-मसुदी, अदबुल-मुलुक और फरिश्ताजैसे अरबी और तुर्क इतिहासकारों ने भी अफगानिस्तान और पंजाब के काबुलशाही (हिंदू शाही) राजाओं को यदुवंशी  या शूरसैनी बताया है। कश्मीर केइतिहास राजतरंगनी के रचयिता कल्हण का भी यही मत है कि काबुल शाही राजा क्षत्रिय थे गज़नी शहर सैनी-यदुवंशी अर्थात शूरसैनी राजा गज महाराज ने बसाया था इतिहासकार राजा पोरस को भी शूरसैनी यादव (अर्थात सैनी ) मानते हैं

 

पंजाबका प्राचीन वृष्णि संघ

नुमिस्मैटिक्स(यानि "मुद्राशास्त्र") के शोध द्वारा अब यह पूर्णतः और निर्विवादित रूपसे सिद्ध हो चुका है कि प्राचीन शूरसैनी यदुवंशिओं से सम्बंधित वृष्णि संघ पंजाब मेंथा और यह उन क्षेत्रों में था जिनमें आज भी सैनियों का बाहुल्य है।  यह प्राचीन वृष्णि संघ के क्षेत्र पंजाब के होशीआरपुर  , पठानकोट , गुरदासपुर,  और जम्मू , हिमाचल  और पश्चिमोत्तर हरयाणा में इनके, सीमावर्ती जिलेहै सं1947 से पहले के भारतीय पंजाब में ही  आने वाला,शूरसैनी राजा शालिवाहन से सम्बंधित, स्यालकोट जिला भी इसी वृष्णि संघ में  था और रावलपिण्डी इसकी पश्चिमोत्तर सीमा पर था ।भारत के बटवारे से पहले इन क्षेत्रों में भी सैनी अच्छी मात्रा में थे। पूरे भारत मेंअपने आप को यदुवंशी कहाने वाले किसी भी जातीय समूह का कृष्णवंशी होने का आग्रह जब तकपूर्णतः संदिग्ध है जब तक वह पंजाब के सैनी बाहुल्य  वाले वृष्णि संघ से अपनी वंशावली का निकास सिद्धनहीं कर सकता ।

 मेगेस्थेनेस जब भारत आया तो उसने मथुरा के राज्य का स्वामित्व शूरसैनियों के पास बताया। उसने सैनियों के पूर्वजों को यूनानी भाषा में "सोरसिनोई" के नाम से सम्भोदित किया यह उसका लिखा हुआ ग्रन्थ "इंडिका"प्रमाणित करता है जो आज भी उपलभ्ध है।

बाद में मथुरा पर मौर्यों का राज हो गया। उसके पश्चात कुषाणों और शूद्र राजाओं ने भी यहाँ पर राज किया। कहा जाता है की लगभग आठवीं शताब्दी के आस पास पंजाब से (जहां भट्टी  शूरसैनियों  का वर्चस्व था ) कुछ यदुवंशीमथुरा वापिस गए और उन्हों ने यह इलाका पुनः जीत लिया। इन राजाओं की वंशावली राजा धर्मपाल से शुरू होती है जो कि श्री कृष्ण के वंशज बताये जाते हैं यह यदुवंशी राजा सैनी (या शूरसैनी)कहलाते थे यह कमान (कादम्ब वन ) का  चौंसठ खम्बा शिलालेख इंगित करता है और इसको कोई भी प्रमाणित इतिहासकार चुनौती नहीं दे सकता वर्तमान काल में करौली का राजघराना इन्ही सैनी राजाओं का वंशज है

10वीं और 11वींशताब्दियों में भारत पर गज़नी के मुसलमानो के आक्रमण शुरू हो गए और लाहौर की काबुल शाही राजा ने भारत के अन्य राजपूतों से सहायता मांगी इसी दौरान मथुरा , भटनेरलौद्रवा (जैसलमेर), और दिल्ली के  शूरसैनी राजाओं ने राजपूत लश्कर पंजाब में किलेबन्दी और काबुलशाहियों की सहायता के लिए भेजे इन्होने पंजाब में बहुत बड़ा इलाका तुर्क मुसलमानो से दुबारा जीत लिया और जालंधर में राज्य बनाया जिसकी राजधानी धमेड़ी (वर्तमान नूरपुर) थी। धमेड़ी केनाम काकृष्णवंशी राजा धर्मपाल के नाम से सम्बन्ध पूर्ण रूप से इंगित है और सैनी और पठानिआ राजपूतों की धमड़ैत खाप का सम्बन्ध इन दोनों से है धमेड़ी का किला अभी भी मौजूद है और यहाँ पर तोमर-जादों-भट्टी   राजपूतों का  तुर्क मुसलमानो के साथ घमासान युद्ध हुआ तोमर-जादों राजपूतों और गज़नी के मुसलमानो का युद्ध क्षेत्र लाहौर और जालंधर (जिसमे वर्तमान हिमाचल भी आता  है) से मथुरा और लौद्रवा (जैसलमेर) तकफैला हुआ था यह युद्ध लगभग 200 साल तक चले और इस काल में दोनों पक्षों की जय पराजय अनेकानेक बारहुई

 

इसकाल में मथुरा , बयाना, थानगिरि,भटनेर, पूगल, लौद्रवा(जैसलमेर), और दिल्ली से तोमर-जादों-भट्टी   राजपूतों का पलायन युद्ध के लिए यायुद्ध के प्रवभाव से पंजाब की ओर होता रहा ।तोमर, भट्टी , और जादों राजपूतोंकी खापें एक दूसरे में घी और खिचड़ी की तरह समाहित हैं और बहुत से इतिहासकार इनको एक ही मूल का मानते हैं (उदाहरण: टॉड और कन्निंघम)इन राज वंशों के पूर्व मधयकालीन संस्थापक दिल्ली के राजा अनंगपाल और मथुरा के राजा धर्मपाल थे पंजाब,जम्मू , औरउत्तरी पश्चमी हरयाणाके नीमपहाड़ी क्षेत्रोंके सैनीइन्ही तोमर,जादों, भट्टी  और पंजाब में पहले से रहते हुए शालिवाहनोत , बालबंधोत, काबुलशाही और, महाभारत में वर्णित मौसल युद्ध के उपरान्त पंजाबमें बसने वाले, प्राचीन वृष्णि संघ के अन्य यदुवंशी राजपूतों के वंशजहैं जोसामूहिक रूपसे शूरसैनीया सैनीकहलाते थे।पहाड़ों पर बसने वाले डोगरा राजपूतों में भी इनकी कई खापें मिली हुई हैं स्मरण रहे किभट्टी  शूरसैनियों और उनके पूर्वजों का बाहुल्य और बाहुबल का ठिकाना चिरकाल से पंजाब में ही था।  इस लिए पंजाब में शूरसैनी यदुवंशी इस सैनिकपलायन से पहले भी बड़ी संख्या में थे और मथुरा, करौली और बयाना वाली शूरसैनी शाखा भीआठवीं शताब्दी में पंजाब से ही वहां गयी थी। । जैसलमेर के भट्टी  भी पंजाब से निकलीहुई मात्र एक शाखा हैं। 

 जैसेकि पहले भी इंगित  किया गया है पंजाब और अफ़ग़ानिस्तानपर शासन करने वाले और मेहमूद ग़ज़नी की तुर्क मुस्लमान सेनाओं  से भिड़ने वाले काबुल शाही राजा भी भट्टी  शूरसैनी ही थे। इनसे शुरू हुई शाखाएं आज भी पंजाब और जम्मू के सैनियों में  मिलती हैं। 

जबक्रूर मुस्लमान आक्रांता मोहम्मद शहाबुद्दीन घौरी अफ़ग़ानिस्तान लौट रहा था तो  उस मलेच्छ को मौत के घाट उतारने और उसे नर्क की आगमें झोंकने वाले भी शूरसैनियों की  खोखर शाखाके योद्धा ही थे।  खोखर आज भी पंजाब और जम्मूके सैनी यदुवंशी क्षत्रियों की बहुत सी शाखाओं का उपगोत्र है। यह उपगोत्र अब पंजाबऔर पाकिस्तान कि अन्य जातियों में भी पाया जाता है लेकिन उन सब में भी  इस उपगोत्र का आगमन यदुवंशी सैनियों से ही हुआ है।  इस लिए हिन्दू हिरदय सम्राट पृथिवी राज चौहान जी  के वध के प्रतिशोध का  गौरव भी पंजाब के सैनी यादवों या शूरसैनियों कोही प्राप्त है।

शालिवाहन पंजाब के एक महाप्रतापी शूरसैनी राजा थे और भट्टी शाखा इन्ही के वंशजों से उत्पन्न हुई है। राजा शालिवाहन को शकों को पराजित कर अफ़ग़ानिस्तान तक का इलाका जीतने के लिए "शाकारि"कहा जाता हैं। भारत के शक सम्वत का उद्घोषप्राचीन पंजाब के वृष्णि संघ की शूरसैनीसेना के द्वारा शकों पर विजय प्राप्त करने के दिवस से ही हुआ। इस लिए भारतीय संस्कति को शूरसैनियों की देन ,मात्र युद्ध कौशल तक सीमित नहीं थी।  आधुनिक पंजाबी भाषा भी शूरसैनी भाषा का ही एक अपभ्रंश या वंशधर है। इस प्रकार से शूरसैनियों की छाप उत्तरी औरपश्चिमी भारत की संस्कृति के हर आयाम पर है। 

खालसा पंथ कि उत्पति से पहले खैबर दर्रे के रखवाले औरहिन्द की चादर’ शूरसैनीअर्थात सैनी क्षत्रिय राजपूत ही थे। पंजाब , कश्मीर और पूर्वी अफ़ग़ानिस्तानमें खालसा राज और हिन्दुपदपादशाही स्थापित करने वाले महाराजा रंजीत सिंह की वंशावली भी इन्ही शूरसैनियों में से निकलती है।

श्रीकृष्ण सैनी थे : एक ऐतिहासिक तथ्य

इस ऐतिहासिक तथ्य का भी विस्मरण हो कि  महाभारतमें श्री कृष्ण और उनके कुटुम्भ के यादवों को, श्री कृष्ण के  दादा महाराजा शूरसेन के नाम के पीछे , "शूरसैनी"कह कर बार बार सम्बोधित किया गया है। श्री वेद व्यास जी  महाभारत में एक स्थान पर लिखते हैं :

"शूरसैनियोंमें सर्वश्रेष्ठ, शक्तिशाली, द्वारकामें निवासकरने वाले(श्री कृष्णमहाराज) सभीभू पतियों कादमन करेंगेऔर वहराजनीती शास्त्रमें पूर्णतः निपुणहोंगे "

(महाभारत, अनुशासन पर्व, 13 , 147 )

विष्णु सहस्रनाम स्तोत्रम् के 75वें श्लोक में श्री कृष्ण को शूरसैनी इस प्रकार कहा गया है :

सद्गतिः, सत्कृति: , सत्ता, सद्भूतिः , सत्यपरायण:

शूरसेनोयदु श्रेष्ठः, सन्निवास:, सुयामुन:।।

"जोसद्गति केरूप हैं, जो उत्तमक्रिया वालेहैं , जिनकाअस्तित्व औरसामर्थ्य स्वयंसिद्ध है, जो सत्यके प्रतिपूर्ण निष्ठावाले हैं।

जो शूरसैनीयादवों मेंश्रेष्ठ हैं (अर्थात श्री शूरसेन के कुल के शूरसैनी श्री कृष्ण), जिनका निवाससत्पुरुषों काआश्रय है, और जोपवित्र यमुनाके तटपर विद्यमानहैं।। "

कुछअल्पज्ञ टीकाकार , जिन्हे शास्त्र  और संस्कृतव्याकरण का पूरा ज्ञान नहीं है ,  यहाँ पर संज्ञात्मक"शूरसेन" शब्द को विशेषण भाव वाले   "शूरवीर"रूप में अनुवादित करते हैं जो कि पूर्णतः त्रुटिपूर्ण है।  "शूरसेनः" का अभिप्राय  इस श्लोक में श्री कृष्ण के पारिवारिक नाम, जो  प्राकृत भाषा में "शूरसैनी" है, उसी सेही है क्योंकि यह शब्द महाभारत और पुराणों में केवल श्री कृष्ण के पितामह महाराजा शूरसेनऔर उनके कुटुम्भ के यादवों के लिए ही प्रयोग होता है।  "शूरसेनो यदु श्रेष्ठः"या "शूरसेनो यदु पतिः"  का जहाँ भीप्रयोग होता है वह केवल और केवल श्री कृष्ण के लिए या उनके पितामह के लिए ही होता हैजैसे कि भागवत की इस पंक्ति में "शूरसेनो यदु पतिः"  पितामह महाराजा शूरसेन के लिए प्रयोग किआ गया है।

"शूरसेनोयदुपति: मधुरामावसन् पुरीम् "

(श्रीमदभागवत पुराण , स्कंध 10 , भाग 1 )

बहुवचनमें "शूरसेनाः" का प्रयोग पौराणिक साहित्य में सदैव शूरसैनियों की सेना याजनपद के लिए होता है। 

विष्णुसहस्रनाम स्तोत्रम् के अनुवाद और व्याख्या उसके वृहत पौराणिक सन्दर्भ से पृथक करकेनहीं किये जा सकते । यह शास्त्र व्याख्या के मौलिक नियम के विरुद्ध है।

इसलिएयह कहना भी अतिशोक्ति पूर्ण नहीं होगा कि अगर श्री कृष्ण पृथ्वी पर फिर से आकर अपनी पहचान आधुनिक सन्दर्भ में दें तो उस पहचान में "सैनी"शब्द अनिवार्य रूप से सम्मिलित होगा।

कोई भी जातीय समुदाय अगर सैनियों मेंसे अपनी वंशावली का अनुरेखण किये बिना कृष्ण वंशी होने का दावा करे तो वह दावा एक परिहासके अधिक कुछ नहीं है।  ऐसे दावे तो संभव हैं पर इन दावों की ऐतिहासिक प्रामाणिकता सिद्ध होना असंभवहै।

सम्पादकीय टिप्पणियां

1.    संपादकीयटिपण्णी क्रमांक 1। प्रयाग यदुवंशिओं का प्राचीनतम उद्गम स्थल है।  शूरसैनी यादवों के प्राचीन इतिहास में प्रयाग, मथुराऔर द्वारका सबसे पवित्र  देवभूमि  माने जाते हैं जिन्हे यदुवंश की सभी शाखाओं के लोगअत्यंत भक्तिभाव से देखते हैं।  टॉड ने प्रयागको पुरु और पोरस का निरुक्त माना है लेकिन टॉड ने यह स्पष्ट कर दिया कि राजा पोरस कोशूरसैनी कहना केवल नाम की समानता पर आधारित नहीं है।  इसका कारण है कि विष्णु पुराण के अनुसार पंजाब द्वारकाके बाद शूरसैनी यादवों  का मुख्य ठिकाना बनगया था।  रुचिकर बात यह भी है कि राजा पोरसके लगभग समकालीन वृष्णि संघ के सिक्के भी पंजाब के होशीआरपुर  में पाए गए जो कि आज भी  सैनियों का गढ़ है। यह वृष्णि सिक्के पंजाब के बाहरआजतक कहीं और से नहीं मिले हैं। यह कन्निंघम के “औदुम्बरा संग्रह” का भाग  हैं और कुलुता श्रेणी में आते हैं। खरोष्टी और ब्रहमी दोनों भाषाओँ के उपयोग वाले इसश्रेणी के सिक्के पंजाब और हिमाचल की सीमा पर होशीआरपुर, पठानकोट, गुरदासपुर, ऊना औरकाँगड़ा ज़िलों  की परिधि से बाहर के हो ही नहींसकते। इन सिक्कों से भी इंगित होता है कि विष्णु पुराण का शूरसैनी शाखा वाले यादवोंको अर्जुन द्वारा पंजाब में बसाने का वर्णन पूर्णतः सटीकहै।   वृष्णि यादवों की वो शाखा है जिस से श्री कृष्ण औरउनके पितामह महाराजा शूरसेन थे।  इस प्रकारशूरसैनी वृष्णि यादवों की आगे एक और शाखा थे। 

 

2.    संपादकीयटिपण्णी क्रमांक 2। सभी शूरसैनी यादव होते हैं पर सभी यादव शूरसैनी नहींक्योंकि प्राचीन यादवों में 56 शाखाएं थीं। शूरसैनी केवल वह यादव शाखा है जिसके मूल पुरुष श्री कृष्ण के पितामह महाराजाशूरसेन थे। यह यादवों की सबसे वर्चस्वी शाखा थी जिसमे श्री कृष्ण का जन्म हुआ था । पंजाब और शौरसेन प्रदेश (पूर्वी राजपुतानाऔर नार्थ वेस्टर्न प्रॉविन्सेस) में 20वे सदी के पूर्वार्ध में "सैनी" शब्द"शूरसैनी" के संक्षिप्तीकरण के रूप में ही प्रयोग होता आया है। करौली रियासतके जादों राजपूतों  को, शूरसैनी शब्द को विभक्त  करके , कभी “शूर” तो कभी “सैनी” करके  भी इतिहासकारों द्वारा वर्णित किआ जाता रहा।  उदाहरण के लिए राणा हमीर देव चौहान के मंत्री  राणा  मल्लको प्रसिद्ध इतिहासकार दशरथ शर्मा "शूर राजपूत" बताते हैं और  उन्हे  बयानेकी शूरसैनी वंशावली से जोड़ते हैं। दूसरी ओर खल्जीओं के कवि-विद्वान, अमीर खुसरो, उसीयुद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए सबसे खूंखार राजपूत सेना पति को “गुरदान सैनी” बतातेहैं। खुसरो के अनुसार सैनी की वीरगति लड़ाई का निर्णायक मोड़ थी। उनके वीरगति को प्राप्तहोते ही राजपूत सेना मनोबल खो बैठी और उथल-पुथल हो गयी। राणा मल्ल ओर गुरदान सैनी संभवतःदोनों एक ही कुल के थे ओर शूरसैनी थे।  इससेभी यह ज्ञात होता है कि शूरसैनी यादव राजपूतों का सामान्य भाषा में  केवल "शूर" या फिर केवल "सैनी"कहलाये जाने का प्रचलन भी था।  ।  मथुरा, बयाना. ओर कमान आदि के कृष्ण वंशी शूरसैनीराजवंश के पूर्वजों को भी सामान्य बोलचाल की भाषा में "सैनी" ही कहा जाताथा (देखें "इनसाइक्लोपीडिया इंडिका" , भाग 100 , पृष्ठ 119-120 , 1996)।

 

3.    संपादकीयटिपण्णी क्रमांक 3।  विष्णु सहस्रनामस्तोत्रम्  में आने वाले “शूरसेनो यदु श्रेष्ठः में श्री कृष्णके लिए प्रयोग हुआ   “शूरसेनः शब्द उनकेवंश का ज्ञान कराता है ।  सभी जानते हैं   कि   शूरसेनश्री कृष्ण का  नहीं अपितु उनके दादाजी का नामथा।  इस लिए "शूरसेनो यदु श्रेष्ठः"में “शूरसेनः केवल जातिसूचक है, व्यक्ति सूचक नहीं ।  सन्दर्भ के अनुसारसंस्कृत भाषा में "शूरसेनः" शब्द व्यक्ति सूचक और जाति सूचक दोनों ही  हो सकता है।  प्राकृत  वंशज  भाषाओँ (उदाहरणतः हिंदी या पंजाबी) में व्यक्ति सूचक "शूरसेनः" का अनुवाद"शूरसेन" ही होगा परन्तु जाति सूचक "शूरसेनः" का अनुवाद केवल"शूरसैनी" ही हो  सकता है।  ठीक इसी प्रकार शूरसेन राज्य की भाषा का प्राकृतअपभ्रंश "शूरसैनी" कहाता  है जो हिंदीऔर पंजाबी दोनों का  पूर्वज है।  

 

कुछ अपने घरकी यूनिवर्स्टियों से  स्नातकोत्तर छदम इतिहासकार,और जातीय दर्प से विषाक्त हुए   धूर्त,  ईर्ष्या वश पंजाब के यदुवंशी सैनियों को प्राचीनशूरसैनियों से अलग बताने के लिए हिंदी जैसी देशी भाषा  के वाक्यों में "शूरसैनी" के बजाय अप्राकृतिकरूप से संस्कृत का "शूरसेनः" या "शूरसेनो" का प्रयोग करते हैं।   यह शठ पूरा वाक्य तो हिंदी या अंग्रेजी  में लिखते हैं लेकिन उसमे कुटिलता या अज्ञानवश   प्राकृत "शूरसैनी" के बजाय संस्कृत का"शूरसेनो" ठूस देते हैं। यह व्याकरण के नियमो का उलंघन है और  बौद्धिक व्यभिचार की परिकाष्ठा है।

 

इन दुर्मतियों की ज्ञान वृद्धि के लिए हम राजपुताना के प्रतिष्ठित  इतिहासकारों के सन्दर्भ उद्धृत करते हैं जिन्होंनेहिंदी भाषा में "शूरसेनो" का अनुवाद व्याकरण के नियमानुसार "शूरसैनी"ही  किया है। 

 

"ये शूरसैनीकहलाते हैं । श्रीकृष्ण के दादा शूरसेन थे जिससे मथुरा के आस पास का देश शूरसेन कहलाताथा और यहाँ के यादव शूरसैनी कहलाये।"

 

(लेखक: मांगीलाल महेचा, "राजस्थान के राजपूत" , पृष्ठ 31, यूनिवर्सिटी  ऑफ़ मिशिगन ,1965 )

 

"करौलीका राज वंश  अपने को यादव वंशी तथा मथुरा कीशूरसैनी शाखा से निकला हुआ  मानता था ।"

 

(लेखक: जगदीशसिंह गहलोत, "इतिहास रत्नाकर" , पृष्ठ 44, श्री जगदीश सिंह गहलोत शोध संस्थान,1991, यूनिवर्सिटी ऑफ़ कैलिफ़ोर्निया , 2007 )

 

4.    संपादकीयटिपण्णी क्रमांक 4।  यादव कुल सेअपना उद्गम बताने वाले   बणीया  भाईचारे के लोग, जो आज कल अपने को वार्ष्णेय लिखतेहैं,  अंग्रेजी काल तक अपने को बारह-सैनी औरशूरसैनी दोनों कहाते थे (देखें " हिन्दू कास्टस एंड सेक्ट्स", पृष्ठ204, लेखक जोगेंद्र नाथ भट्टाचार्य ,  अठारहसौ छयानवे) ।   पंजाब में तो यह अभी भी ऐसेही है और सैनियों के स्वजातीय  इतिहासकार और  प्रवक्ता चौधरी शिव लाल सैनी  जी ने भी उर्दूभाषा में लिखे अपने  ग्रन्थ, जो 20वीं  सदी के आरम्भ में लाहौर से प्रकाशित हुआ था,  का नाम "तारीख-ए-कौम शूरसैनी" ही रखा था  । इसलिए पंजाब के शुद्ध रक्त यदुवंशी सैनी क्षत्रियोंमें न "शूरसैनी" पहचान की  और न हीमथुरा और यदु पति पितामह महाराजा शूरसेन  सेउनके उद्गम की स्मृति कभी विलुप्त हुई,  औरना ही इन्होने कभी कई और जातीय समुदायों की तरह, आधुनिक समाज शास्त्र में "संस्कृतिकरण"कही जाने वाली प्रक्रिया के अंतर्गत, कभी अपने नाम , पहचान, और उनसे  जुड़े हुए वृतांत  बदले। इस लिए "सैनी" और "शूरसैनी"उपनामो का ऐक्य , यदुवंश से उत्पति के सन्दर्भ में, अनेक सवतंत्र और असंबंधित स्रोतोंसे सिद्ध  होता है जिन स्रोतों में, जानकारीऔर प्रचार माध्यमों के आभाव के कारण, योजनाबद्ध समन्वय असंभव  था।  अकादमिक या शास्र-विषयक विवेचन में इस प्रकार तथ्यकी पुष्टि को "त्रिअंगुलेशन" बोला जाता है जो की सर्वदा निर्विवादित माना जाता है ।

 

5.    संपादकीयटिपण्णी क्रमांक 5। बारह-सैनी बणिया भाईचारा. , जो अंग्रेज़ी काल से अपनेको “वार्ष्णेय” लिखने लगा, वृष्णि कुल में जन्मे और श्री कृष्ण के सम्बन्धी अक्रूरजी को अपना मूल पुरुष बताता है और अपने को शूरसैनी यदुवंशी मानता है।  रुचिकर बात यह भी  है कि पंजाब के प्राचीन वृष्णि संघ के वंशज सैनियोंकी एक उपशाखा भी, जिसका नाम “तण्ड्” है, अपना उपगोत्र "अक्रूर" बताती  है।

 

6.    संपादकीयटिपण्णी क्रमांक 6। शहाबुद्दीन मुहम्मद गौरी को सं बारह सौ छह में वर्तमानपाकिस्तानी पंजाब के रावलपिंडी और झेलम ज़िलों के लगभग बीच में पड़ने वाले कोट धमीआकनामक स्थान पर खोखरों ने मौत के घाट उतार दिया। धमीआक सैनियों की धमड़ैत या धमड़ीाल गोतका एक ठिकाना था। धम्याल और धमियाक इस गोत के नाम के ही अलग अलग रूप हैं ।  यह मूल रूप से शुद्ध यदुवंशी राजपूत हैं, पर अबयह गोत मुस्लमान राजपूतों (यानि रांघड़ों) , जाटों और गूजरों में भी मिलता है। यह गोत  पठानिआ हिन्दू भाईचारे में भी ठीक इसी नाम से पाया जाता है।   लेकिन यहमूल रूप से शूरसैनियों की ही शाखा है और जो, तुर्क मुस्लमान शासित पंजाब में,  हिन्दू सैन्य शक्ति का विध्वंश करने की दृष्टि से, क्षत्रिय जातिओं पर होते हुए विशेषप्रकार के अत्याचारों से उत्पन्न परस्थितियों के कारण,  इन्ही में से बहिर्विवाह, व्यवसाय परिवर्तन और धर्मपरिवर्तन  द्वारा कालांतर में अन्य समुदायों  में गयी। ।  यह इस बात से भी प्रमाणित होता हैकि धमड़ैत, धमड़ीाल या धम्याल  रावलपिंडी और झेलमज़िलों की मुग़ल जाति का भी एक प्रमुख गोत है (देखें “सेन्सस ऑफ़  इंडिया , 1901, वॉल्यूम  17, पृष्ठ 354”) और इनके  विवाह तथा  कथित “मुग़ल” गखड़ों और कयानिओं में होते थे। अंग्रेजीकाल तक भी यह मुस्लमान धम्याल  अपने को  सैनी मुग़ल भी कहलाते थे (देखें "रिपोर्ट ऑन थे सेन्सस ऑफ़ ब्रिटिश इंडिया, टेक्कनऑन 17 फेब्रुअरी 1881",  प्लोव्देन, डबल्यूसी , पृष्ठ 277, 1883 ) ।

पंजाब  और गांधार में क्रूर और निरंकुश तुर्क और पठान इस्लामी शासन अपनी चरम सीमा पर था ।  पश्चिमोत्तर पंजाब में   हिन्दू क्षत्रिय  जातियों को  जज़िया देने के इलावा  बलपूर्वक  भूमि अधिग्रहण और "डोला" कुरीति आदि अत्याचारों  का भय हमेशा बना रहता था। डोला कुप्रथा के अंतर्गत  हिन्दू राजपूतों को अपनी सम्पति और अपना सामाजिकवर्चस्व  बचाने के लिए स्थानीय मुस्लमान हाकिमोको अपनी बेटीआं ब्याहनी पड़ती थी।  इस अत्याचारसे मुक्ति पाने के लिए कुछ राजपूत कबीले पूरी तरह मुस्लमान हो गए और जो क्षत्रिय अत्याचारसे मुक्ति पाने के लिए अपनी वैदिक आस्था का विनिमय नहीं करना चाहते थे वह अपनी क्षत्रियपहचान को गौण करके कृषि, व्यापार  आदि अन्यव्यवसाय अपनाने लगे । पंजाबी समाज में यह परिवर्तन निरंतर गति से लगभग 700 साल तक चलतारहा ।  यह अत्याचार अन्य हिन्दू जातियों परभी होता था परन्तु ब्राह्मणो और क्षत्रियों पर यह विशेष तीव्रता से,  और बिना किसी ढील के ,  इसे थोपा जाता था। इस्लाम अपना कर इन धर्मच्युतभूतपूर्व राजपूतों का पूरा काम नहीं बनता था। शाही दरबारों में उन्नति के लिए इन्हे खुद को "अशरफ" भी सिद्ध करनाहोता था।  केवल ऊंची हिन्दू जाति से धर्मान्तरितहोना प्रयाप्त नहीं था । इसलिए यह धर्मांतरित भूतपूर्व हिन्दू जातियां अपने को अशरफबताने के लिए अपनी वंशावलियों को छदम विधि से अरबों , ईरानियों और तुर्कों से जोड़नेका हर संभव प्रयास करते थे और इसके कारण इनमे विभिन्न प्रकार के मनगढंत कथानक प्रचलितहो गए । इन धर्मांतरित तथा कथित मुग़ल सैनियों, गखड़ों, धम्यालों , बड़लों,  इत्यादियों का मुग़लीकरण या अशरफीकरण  इसी सामाजिक प्रक्रिया से हुआ । सौभाग्य से पूर्वीपंजाब में इन पुरातन क्षत्रिय कुलों की हिन्दू शाखाएं पूरी तरह विलुप्त नहीं हुई  जिससे इनके हिन्दू पूर्वजों  और उनके इस्लामीकरण का ज्ञान भलीभांति हो जाता है।

धमड़ैत, धमड़ीालया धम्याल  गोत का उद्गम पठानकोट ज़िले के धमेड़ी(वर्तमान नूरपुर) से है। इनकी मुस्लमान शाखाएं भी किसी काल्पनिक "धामी खान"की वंशज नहीं है।   धमेड़ी का शुद्ध नाम धर्मपाला था और यह प्रतापी शूरसैनीराजा धर्मपाल के नाम पर था।  कालांतर में इसकानाम दहमाला, डमाल इत्यादि भी कहा जाने लगा। अल बरुनी ने इसे दहमाला ही लिखा है और इसेप्राचीन जालंधर राज्य की राजधानी बताया है। दहमाला धर्मपाला  का अपभ्रंश है।  यह जालंधर राज्य भी प्राचीन पंजाब में शूरसैनियोंके वृष्णि संघ का ही एक और नाम था।  यह वर्तमानजालंधर ज़िले से बहुत बड़ा था और इसमे जालंधर, होशीआरपुर, पठानकोट , जम्मू , सयालकोट, गुरदासपुर , राजौरी, काँगड़ा, झेलम और रावलपिंडी तक के क्षेत्र सम्मिलित थे।  प्राचीन अभिलेखों और मुद्राशास्त्र (या नुमिस्मैटिक्स)  से यह अब सर्वसिद्ध है  कि यह चिर काल से यदुवंशियों द्वारा शासित राज्यथा।

खोखर भी शूरसैनीयादवों की उपशाखा है जो लाहौर और काबुल के यदुवंशी  हिन्दुशाही राजाओं के निकट सम्बन्धी थे। मेहमूदग़ज़नी से युद्ध करने वाली काबुल शाही सेना में इनका बढ़ चढ़कर योगदान था । वास्तव मेंगखड़ और खोखर एक ही जाति हैं और "खोखर" "गखड़" का अपभ्रंश है । खोखरोंया गख्रडों का बाहुल्य भी उपरोक्त प्राचीन पंजाब के वृष्णि संघ वाले क्षेत्रों मेंही था और “खोखर” जादोबंसी सैनियों की अनेक शाखाओं का उपगोत्र है।  कलोटिये, खोवे या खूब्बे , मंगर या मंगराल, धमड़ैत,धमड़ीाल या धम्याल गोत  के शूरसैनी या सैनी भीखोखर  हैं। इस प्रकार धमड़ैत या धम्याल गोत केठिकाने कोट धमीआक में शहाबुद्दीन गौरी की हत्या धमड़ैत या धम्याल गोत के हिन्दू शूरसैनीखोखरों द्वारा पूर्णतः इंगित है।  गौरी के वधका श्रेय किसी अन्य जाति को देने वाले अप्रमाणित इतिहासकार "वर्तमानवाद"नामक अकादमिक  पूर्वाग्रह से ग्रसित हैं जोपंजाब के समाज शास्त्र के उचित ज्ञान के अभाव में स्थानीय  जातीय पहचानो और उनसे संभंधित काल खंडो की खिच्चड़ीबनाकर अपनी सुविधाअनुसार निष्कर्ष निकालते हैं ।

7.    संपादकीयटिपण्णी क्रमांक 7 शूरसैनियों के पितरों और कुलदेवता कीपवित्र भूमि को जठेरा बोला जाता है।"जठेरा" शब्द संस्कृत के "ज्येष्ठ"  का पंजाबी रूप है।    हर शाखा या गोत का अपना अलग "जठेरा" होता है जहाँ सती माता का पवित्र स्थल भी होता है।  यह  प्राचीनक्षत्रिय परंपरा के अनुसार है । यह परंपरा सैनियों में अटूट चलती आयी है । पहले के समय पर इन जठेरा देवस्थलों परक्षत्रिय मर्यादा अनुसार बलि भी दी जाती थी।  लेकिन आज कल यहाँ पारिवारिक निष्ठा अनुसार वैदिक यज्ञ या सिख पद्धति से अखंड पाठ ही होता है।  बुआ दाती को सैनियों की सती माता के रूप में पूजाजाता है। जम्मू के सिविल  सेक्रेटेरिएट  परिसर में फरड़ गोत के सैनियों का बुआ दाती सती मंदिरअति प्रसिद्ध है।  यहाँ पर पूजा करने के लिएफरड़  गोत के सैनियों को विशेष अधिकार प्राप्तहैं।  फरड़ गोत की बुआ दाती का लोक कथानक डुग्गर  देश के स्थानीय ब्राह्मणो के द्वारा माँ बुआ दातीकी भेंट के रूप में गाया जाता है।  पंजाब में, जहाँ सिख संस्कृति का प्रभाव अधिक है ,  माँबुआ दाती को अब बीबी गुरदित्ती भी कहा जाता है और इस पवित्र सती के देवस्थान पर आदिग्रन्थ साहिब जी का अखंड पाठ और लंगर का, सम्बंधित गोत के सैनियों द्वारा, आयोजन भीहोता है ।

जय दाते शेर सिंह सलारिये दी !

जय , शौरी ,  शूरसैनी, संकर्षण ,  नीलाम्बर, हलधर, हलयुद्ध, बलदेव, बलभद्र, श्री बलरामजी!

जय अच्युत,  शौरी , शूरसैनी,   सनातनसारथी ,  पार्थसारथी, पीताम्बर,  पांडुरंगा,  श्री कृष्ण मुरारी जी!

वाहेगुरु जी का खालसा , वाहेगुरु जीकी फ़तेह!

इति  धर्मपालसुत: कृत: शूरसैनी रासो  समाप्तम

लेखकः धर्मपालसुतः सुप्रसिद्धे अमेरिकनविश्वविद्यालयात्डॉक्टरेट्-उपाधिं प्राप्तवान् अस्ति ।

आवश्यकसूचना  

पश्चिमीउत्तर प्रदेश, दक्षिण हरयाणा ,और उत्तराखंड में बसने वाली गोला, भागीरथी, कोइरी , काछी,माली , इत्यादि जातीय समीकरण के भाई जो  अंग्रेजीकाल से अनेक कारणों से "सैनी" उपनाम का प्रयोग करने लगे वह  पंजाब , जम्मू, हिमाचल और पश्चिमोत्तर हरयाणा केजादो बंसी सैनी क्षत्रिय भाईचारे, अर्थात शूरसैनियों, से बिलकुल अलग हैं। जादो बंसीसैनी क्षत्रिय भाईचारे के इन जाति समूहों के साथ ऐसे कोई भी  सांस्कृतिक, भगौलिक , औरवंशानुगत सम्बन्ध नहीं है जो अन्य हिन्दू जातियों के साथ साँझा न हो, और न ही इनमेआपस में विवाह होते हैं । यह जातियां आदर और सम्मान की पात्र हैं परन्तु पंजाब के सैनीया शूरसैनी भाईचारे से पूर्णतः भिन्न हैं। अधिक जानकारी के लिए देखें परिशिष्ट। धन्यवाद। 

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परिशिष्ट

छदमसंगठनों से सावधान !

कृत्रिमसैनियों और उनके दुष्प्रचार से सावधान!

निम्न लिखित जातियां पंजाब के शूरसैनी अर्थात यदुवंशी क्षत्रिय सैनी भाईचारे से पूर्णरूप से अलग हैं:

 राजसथान , मध्य प्रदेश और दक्षिण हरयाणा की माली जाति ।

इस  जाति के कुछ शठ तत्वों ने 1937 में प्रशासनिक छलबल से अपनी जाति का नाम सैनी लिखवा लिया जबकि इनका पंजाब के यदुवंशी सैनी क्षत्रिय भाईचारे के साथ कोई भौगौलिक , सांस्कृतिक और वंशानुगत सम्बन्ध नहीं है।  ऐसा अंग्रेजी काल में ब्रिटिश इंडिया की सेना के लिए योग्यता सिद्ध करने के लिए और "माली" शब्द से और उससे उत्पन होने वाली  हीन भावना से  अपनी पहचान को अलग करने के लिए किआ गया था।  स्मरण रहे कि अंग्रेजी काल में पंजाब के सैनी भाईचारे को स्टटूटोरी मार्शल कास्ट या वैधानिक योद्धा जातियों  की सूची में रखा गया था और पंजाब के जादोबंसी सैनी भाईचारे की भर्ती सेनामें सीधे तौर पर  होती थी। इसलिए सैनी पहचान चुराने के स्पष्ट रूपसे सामाजिक प्रतिष्ठा के इलावा  आर्थिंक औरव्यावसायिक लाभ भी थे । अट्ठारहां सौ इक्क्यानवे की मारवाड़ राज्य की जनसँख्या गणना रिपोर्ट में सैनी नाम की कोई जाति नहीं थी।  जिससे इस गोत्र चौर्य की  पोल अपने आप खुल जाति है।

1937 का जोधपुर स्टेट का आर्डर जिसके द्वारा  सैनी क्षत्रिय पहचान में घुसपैठ का कुत्सित प्रयासकिया गया आसानी से उपलब्ध है (देखें आर्डर क्रमांक 2240 , फरवरी 6 , 1937, मेहकमास, डी,  एम् फील्ड , लेफ्टिनेंट कर्नल , चीफ मिनिस्टर , गवर्नमेंटऑफ़ जोधपुर, गवर्नमेंट प्रिंटिंग प्रेस, जोधपुर) । 1937 में जोधपुर स्टेट के आर्डर द्वारा पहले मालियों का नाम  "सैनिक क्षत्रिय"घोषित करवाया (यह ध्यान देने योग्य तथ्य है की भारत के इतिहास में इस से पहले कोई तथाकथित"क्षत्रिय" कुल ऐसा नहीं हुआ जो अपने गोत्र या शाखा का नाम "सैनिक"बताता हो )। यह एक अनूठी परंपरा की शुरुआत थी । दुर्व्यपदेशन की  धृष्टता केवल इसी बातसे सिद्ध हो जाती है की 1941 की जनगणना में इन धूर्त प्रचालकों ने  माली जाति के नए  संस्कृतकृत नाम "सैनिक क्षत्रिय" मेंएक बार फिर से फेर बदल करके उस में चालाकी से अक्षर  "क" हटा कर उसे "सैनी क्षत्रिय"करवा दिआ जो की एक बिलकुल अलग जाति का नाम था जिसने कभी भी मालिओं को अपने में से एकनहीं माना और न ही कभी उनके साथ वैवाहिक सम्बन्ध बनाये। माली भाईचारे द्वारा अपने को1941 में सर्वप्रथम बार किसी जनगणना में "सैनी" पंजीकृत करवाने के प्रमाणके लिए देखें “सेन्सस  ऑफ़  इंडिया , 1961, वॉल्यूम  14, इशू 5, पृष्ठ  7,  ऑफिस ऑफ़ दी रजिस्ट्रार जनरल , इंडिया”। इस तरह की घुसपैठ के प्रयास अंग्रेजी काल में अनेक क्षत्रिय जातियों के साथ हुए। केवल सैनी ही इस कुप्रयास के एक मात्र पीड़ित पक्ष नहीं रहे।

पंजाब के अधिकतर शुद्ध रक्त यदुवंशीसैनियों को इस बात की भनक भी नहीं है कि उनकी चिर प्राचीन पहचान के साथ ऐसी धोखाधड़ी पिछले 70-80  साल से चलती आ रही है।  ऐसा इस लिए है क्यों कि ये दोनों जातियां एक हीभौगोलिक क्षेत्र में नहीं हैं और न ही उनकी भाषा एक है । और पंजाबी लोग वैसे भी जातिविषयक संवादों में अधिक रूचि नहीं रखते । इस लिए इस धोखा धड़ी का भांडा फोड़ने की बातइस से पहले किसी को नहीं सूझी। परन्तु अब इंटरनेट जैसे प्रसार माध्यम के आने से भीपंजाब के  शुद्ध रक्त यदुवंशी सैनियों में इसकपट और सांस्कृतिकप्रदूषण को लेकर चिंता जाग रही है ।

यहाँ पर यह स्पष्ट करना उचित होगा कि पूरी माली जाति इस गोत्र चौर्य के लिए उत्तरदायी नहीं है।  यह उन धूर्त राजनैतिक प्रचालकों की करतूत है जो अपना वोट बैंक बढ़ाने के लिए किसी प्रकार की कुटिलता करने के लिए तैयार रहते है।  जिन लोगों ने माली भाईचारे के नाम पर यह प्रशासनिक मिथ्या निरूपण किआ उन्होंने इस कुकृत्य के लिए सर्वेक्षण करके या मतदान करवा कर माली भाईचारे से आज्ञा नहीं ली थी। माली भाईचारा स्वयं इस कपट से भरी हुई राजनीति से शोषित है।  इस लिए इस बात के लिए माली भाईचारे के किसी भी व्यक्ति का मान मर्दन करने का कोई औचित्य नहीं है।  माली भाईचारे के स्वाभिमानी लोगों को जब इस कुकृत्य का ज्ञान होता है अधिकतर वह स्वयं ही अपने को सैनी बोलना छोड़ देते हैं।  कोई भी स्वस्थ आत्मसम्मान वाला स्वावलंबी व्यक्ति नकली पहचान लेकर नहीं जीना चाहता है। 

पूरे समाज को इस बात पर भी चिंतन करनाचाहिए कि क्यों हम कुछ व्यवसायों को ऐसी  दृष्टिसे देखते हैं जिस के कारण आदर पाने के लिए पूरी तरह से निति और परिश्रम द्वारा  जीवन यापन करने वाले भाइयों को सामाजिक  सम्मान पाने के लिए अपनी जाति का नाम बदलना पड़ताहै। वैसे तो स्वतंत्रता उपरान्त हमारा समाज अब काफी बदल चुका है  परन्तु अभी और बदलने की आवश्यकता है। जिस प्रकारएक शरीर स्वस्थ तभी तक  माना जा सकता है जबतक उसके प्रत्येक अंग में पूर्णता  हो। उसीप्रकार एक समाज भी तभी तक स्वस्थ और पूर्ण है जब तक उस समाज में सभी व्यवसाय आदर पाते हैं। रिग वेद के मंडल १० में दीहुई पुरुषसूक्त का भी यही मर्म है। माली द्वारा बनायीं हुई माला मंदिर में देवों  पर उनको शोभायमान बनाने के लिए चढ़ती है।  यह काम करने वाली जातियां पूरे सम्मान की पात्रहैं।

पश्चिमी उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड कीतथा कथित "सूर्यवंशी सैनी” अर्थात् "गोला" जाति ।

 पश्चिमी उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड की तथा कथित"सूर्यवंशी सैनी" जाति काभी  पंजाब के यदुवंशी सैनी क्षत्रिय भाईचारेके साथ कोई सांस्कृतिक और वंशानुगत सम्बन्ध नहीं हैं ।  इस जाति का असली नाम "गोला" है। कई लोगइनको "भागीरथी माली"  भी कहते हैं।  इनकी पहचान के साथ "सैनी" कैसे जुड़ा यहएक अलग चर्चा का विषय है  क्यों कि ये स्वयंही अपने को यदुवंशिओं से भिन्न मानते हैं और न ही पंजाब के जादो बंसी सैनी या यदुवंशी क्षत्रिए इनको अपनेमें से एक मानते हैं। वास्तव में यह काछी, माली, बागबान , गोला , भागीरथी , कोइरी इत्यादिसात या आठ अलग जातियों का समूह है जो वोटों की राजनीति के चलने के कारण "सूर्यवंशीसैनी" नामक समीकरण में परवर्तित हो गया। इनमे "सैनी" नाम की भी एक खापथी जिसका पंजाब के यदुवंशी सैनियों अर्थात शूरसैनियों के साथ कोई सांस्कृतिक और वंशानुगतसम्बन्ध नहीं था । सन्दर्भ के लिए "सैनी" नाम की खापें जाटों , खैबर के पठानों, मुग़लों और मुस्लमान राजपूतों या रंघड़ों, अखनूरके ब्राह्मणों, बनियों और कई और जातियों में भी थीं जिस से अपने आप में कुछ सिद्ध नहींहोता।   इस विषय में आगे कुछ और भी कहेंगे। 

अंग्रेजी काल में भी इनकी भर्ती फ़ौजमें नहीं होती थी।  केवल पंजाब के यदुवंशी क्षत्रियसैनियों की ही सेना में भर्ती होती थी।  दोनोंविश्वयुद्धों,  आज़ाद हिन्द फ़ौज में और स्वतन्त्रभारत के सभी युद्धों में   लड़ने वाले और अपनेशौर्य से इंडियन आर्डर ऑफ़ मेरिट (महावीर चक्र) , परम वीर चक्र, विक्टोरिया क्रॉस केसमकक्ष क्रॉस ऑफ़ सैन्ट जॉर्ज, और आर्डर ऑफ़ ब्रिटिश इंडिया (सरदार बहादुर) जैसे सम्मानजीतने वाले सभी सैनी वीर योद्धा पंजाब से हैं। एक भी पंजाब या उस के सीमावर्ती पशियमोत्तर हरयाणा या जम्मू से बाहर का नहींहै। 

और ना  ही उत्तराखंड और उत्तरप्रदेश के इस तथा कथित "सूर्यवंशीसैनी" नामक समीकरण अर्थात् गोला इत्यादि जातियों को अंग्रेजी काल में पंजाब केजादो बंसी सैनियों के जैसे अलग अलग क्षेत्रों की ज़ैलदारियाँ और सरदारियाँ  प्राप्त थीं । जैलदार पुराने समय के राजपुताना के ठाकुरों के समतुल्य होते थे जो लगभग  बीस या उससे अधिक गाँवों की ज़ैल की कर वसूली करतेथे और उनका प्रशासन देखते थे।  ये पदवी  सम्बंधित क्षेत्र की सबसे प्रतिष्ठित और वर्चस्वीजाति के चौधरिओं को ही दी जा सकती थी जिनकी जाति को सम्बंधित क्षेत्र की अन्य जातिओंके लोग भी प्रतिष्ठित और अग्रणीय माना करते थे। स्थानीय जातीय पदानुक्रम में पीछे या नीचे रह जाने वाली किसी जाति को यह पदनहीं मिल सकता था क्योंकि उस काल में तथा कथित छोटी जाति वाला कोई व्यक्ति ऊँची जातिवाले लोगों से कर नहीं वसूल सकता था।  गलत यासही , समाज का ढांचा ही ऐसा था।  ।

पंजाब के जादो बंसी सैनियों की सामाजिकस्तिथि के ऊपर एक और परिपेक्ष के लिए यहाँ बताना अनुचित न होगा कि गुरदासपुर  में तलवंडी के सैनी सरदार  दल सिंह महाराजा रंजीत सिंह के प्रमुख सेना पतिओंमें से थे और इन्होने अठारह सौ पैंतालीस में हुई एंग्लो सिख युद्ध में वीरगति प्राप्तकी और इनकी जागीर इसी उपरान्त ही इनके वंशजों से छिनी। गुरदासपुर के सलारिया चौधरिओं के वैवाहिक सम्बन्ध स्वयं सरकार--खालसा महाराजा रंजीत सिंह के साथ थे।  फुलकियां  रियासत के जरनैल नानू सिंह सैनी के परिवार  के पाब्ला सरदारों के पास 26000 बीघा (यानी 655मुरब्बे) से भी कहीं अधिक ज़मीन थी और फुलकियां के राज दरबार में इन जादो बंसी सैनी सरदारों को विशेष सम्मान और शाही  उपाधियाँ प्राप्त थीं। इसी परिवार के सरदार जय सिंहसैनी महाराजा रंजीत सिंह के लाहौर दरबार में भी विशिष्ट अतिथि होते थे।  पटिआला के पास जय नगर इन्ही की जागीर का अंश मात्रथा ।

पंजाब के सैनी यदुवंशिओं के उत्तराखंडऔर उत्तरप्रदेश के इस तथा कथित "सूर्यवंशी सैनी" नामक समीकरण अर्थात् गोलाइत्यादि जातियों में विवाह नहीं होते - और जैसे की स्वयं विदित है - ना ही इनके स्थानीयसामाजिक पदानुक्रम में स्थान, संस्कृति, और सभ्याचार एक जैसे हैं । इनकी खापें या गोतभी  पंजाब के यदुवंशी क्षत्रिय सैनियों से पूर्णरूप से भिन्न हैं। इनमे से एक खाप के नाम  कीसमानता मात्र संयोग वश है।  भारत भर में ऐसीकई जातियां हैं जिनके नाम में "सैनी" आता है पर वो आपस में एक दूसरे से बिलकुलअलग हैं।

उदाहरण के रूप में बारह-सैनी नामक जातिपर दृष्टि डालिये।  हालांकि बारह-सैनी भी अपनेको यदुवंशी मानते हैं परन्तु ये बिलकुल अलग जाति है जो बनियों में गिनी जाति है।  यह जाति आजकल अपने को  "वार्ष्णेय" कहलाती है पर अंग्रेजी कालतक इस जाति का शुद्ध ऐतिहासिक नाम बारह-सैनी ही था और इनकी संस्कृति बिलकुल कुलीन औरउन्नत वणिक जातियों जैसी है (क्षत्रिय जातियों जैसी नहीं) ।

ठीक इसी प्रकार अग्गरवाल बनियों मेंभी बारह सैनी , चाऊ सैनी , और राजा सैनी नामक शाखाएं हैं जिनके वंशज अपने को  द्वापर युग के सूर्यवंशी राजा अग्गरसेन जी से  जोड़ते हैं। ये अग्रसेन जी यदुवंश की अंधक शाखा केराजा और श्री कृष्ण के नाना जी उग्रसेन से भिन्न बताये जाते हैं।  

इसी प्रकार संगीत के घरानो की शाखाओंमें भी सैनी घराना है जो कि संगीत सम्राट तानसेन से जुड़ा हुआ है न कि यदुवंशी शूरसैनियोंसे या अग्गरवाल बनिया सैनियों  से। 

राजस्थान के खत्री छीपा या छीम्बा हैं, बिहार के खत्री सुनार हैं और गुजरात के खत्री दर्ज़ी हैं। क्या इसका यह अभिप्राय हैकि पंजाब के खत्री भी छीम्बा, सुनार या दर्ज़ी हैं? माली तो 1930 के दशक के प्रशासनिक मिथ्या निरूपण से पहलेस्वयं ही अपने को सैनी नहीं बोलते थे। 

ये बौद्धिक व्यभिचार नहीं तो और क्याहै?

भारत का समाज शास्त्र ऐसी उदाहरणों सेभरा पड़ा है। नाम की समानता विभिन्न कारणों से हो सकती है जिससे जाति की समानता स्वतःसिद्ध नहीं होती।

इस लिए पंजाब के जादो बंसी सैनी क्षत्रियभाईचारे को उनकी घोर आपत्ति के उपरान्त भी उपरोक्त जातीय समूहों से जोड़ना अनीति,  मिथ्याचार  और दुर्भावना की परिकाष्ठा होगी जो कि अशोभनीय औरअसहनीय है!

न्यायिक अस्वीकरण

हम सभी जातियों का आदर करते हैं और सामाजिक  ऊंच नीच को प्रोत्साहन या समर्थन नहीं देते। हमकिसी हिन्दू जाति के प्रति  द्वेष, ईर्ष्या  और श्रेष्ठता के भावना नहीं रखते । किन्तु किसीभी पक्ष द्वारा अपने कुल और जठेरों की वंशानुगत सांस्कृतिक  धरोहर की रक्षा के  कार्य के सन्दर्भ में जातिवाद का दोषारोपण  करना सर्वथा आधारहीन और अनुचित होगा ।

इस सन्दर्भ में  राष्ट्रीय कवि मैथिलि शरण गुप्त की यह  प्रसिद्ध काल जयी पंक्तिओं को उद्धृत करना असंगतन होगा :

जिसको न अपनेबंधुओं के दुख सुख का ज्ञान है।

जिसको न अपनेपूर्वजों की कीर्ति का कुछ ज्ञान है।

जिसकी न अपनीहीनता पर शोक , खेद महान  है ।

जिसको नहींखलता कभी संसार में अपमान है।

जिसको न निजगौरव तथा निज देश पर अभिमान है।

वह नर नहीं, पशु निरा है, और मृतक समान है ।

मैथिलि शरण गुप्त जिस "पूर्वजोंकी कीर्ति के ज्ञान " की यहाँ बात कर रहें हैं , हमारा उत्साह भी उसी "पूर्वजोंकी कीर्ति के ज्ञान" के छदम  वृतांतोंमें विलय और लुप्त हो जाने की प्रक्रिया का निरोध करनेतक ही सीमित है (किसी जाति विशेष का अपमान करने के लिए नहीं) ।  यह चेतना शास्त्रों में बताये हुए पितृ ऋण  केसिद्धांत से भी सम्बंधित है जिस से जादो बंसी सैनी क्षत्रियों की चिर काल से चलती  आ रही जठेरा पूजन की  वैदिक परम्परा मौलिक रूप से जुडी हुई है ।"पूर्वजोंकी कीर्ति का  ज्ञान "  किसी भी दृष्टि से जातिवाद नहीं है और न ही हम इसकेलिए किसी भी सांस्कृतिक मार्क्सवादी चिंतक से क्षमा याचना के अभिलाषी हैं ।

हिन्दू  जातियों के वैधानिक, सामाजिक,  और आध्यात्मिक समत्व,जिस  का हम हर दृष्टि से अनुमोदन और समर्थन  करते हैं,   उन जातियों की विशिष्टता गौण या नगण्य नहीं करता  ।   भारत का  इतिहास इन्ही विशिष्ट जातियोंके अनुभवों, उमंगों , वेदनाओं , वंशावलियों , और लोक  कथाओं का एक समग्र वृत्तांतहै।  यह इतिहास को लिखने और पढ़ने की  "अधः ऊर्ध्व" (या "बॉटम अप")  पद्धति का एक अनिवार्य अंग है । इस लिए इनकी उपयोगितास्वयं सिद्ध है।   अभिलेखों और मुद्राशास्त्र का अध्यन मात्र इतिहास लेखन का  एक उपकरण है और उसकी अपनी सीमांए और कमियां होतीहै।    

 इस लेख में दूसरे  जाति समुदायों का विवरण केवल पंजाब के  सैनी जादोबंसी   क्षत्रिय या शूरसैनी भाईचारे की   अनमोल और विशिष्ट पहचान  और उनके ऐतिहासिक वृत्तांत को असामाजिक तत्वों-और वोटों के लालची धूर्त  नेताओं के दुष्प्रचारसे सुरक्षित रखने के लिए दिया गया है। 

हर जातीय समूह अपना सामाजिक उत्थान चाहताहै।  इसमे किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए औरहम इसका अंतर्मन से समर्थन और सहयोग करते हैं। परन्तु किसी भी जाति को यह अधिकार नहीं है कि वो अपने उत्थान के लिए किसी दूसरीजाति की पहचान और इतिहास से छेड़ छाड़ करे। 

हम अब विवश हो कर प्रति क्रिया केवलइस लिए दे रहे हैं कि कई दशकों से शुद्ध जादो बंसी  सैनियों की तथ्य पर आधारित  प्रति क्रिया के अभाव के कारण ये दुष्प्रचार दिनप्रति दिन  बढ़ता ही जा रहा है। शुद्ध यदुवंशीक्षत्रिय रक्त वाले पंजाब के सैनियों को इस सांस्कृतिक प्रदूषण के दुष्परिणाम भोगनेपड़ते हैं।  अगर किसी दूसरे सामाजिक समूह केकुछ लोग आकर  आपके शताब्दियों  से चलते आ रहे बाप दादाओं के नाम , पहचान और जीवन वृत्तांत जड़ से ही बदलने का कुप्रयास करेंतो उनके उत्तराधिकारियों की धर्म संगत, न्यायोचित , और रौद्र प्रति क्रिया के लिए वहस्वयं उत्तरदायी हैं।

1964 में पंजाब के महान शिक्षकों  में गिने जाने वाले और खालसा कॉलेज (अमृतसर) मेंअंग्रेजी साहित्य के  प्रोफेसर डॉक्टर करतारसिंह (पी एच डी, पंजाब यूनिवर्सिटी) ने भी अपने बहुचर्चित  निबंध में ,  पंजाब के शुद्ध रक्त यदुवंशी सैनी क्षत्रियों काप्रतिनिधित्व करते हुए,  इस आक्रोश को प्रकटकिया था। उस से पहले अंग्रेजी काल में  भी पंजाबके सैनी भाईचारे के वयोवृद्ध लोग इस के विरुद्ध आपत्ति प्रकट करते रहे।  इस छदम सामाजिक अभियांत्रिकी या सोशल इंजीनियरिंगसे केवल वोट बैंक  और पद के लोभी राजनैतिक छुटभैय्येऔर टट्ट पूंजिये ही लाभान्वित होते हैं।  भाईचारेके शेष सदस्यों में इससे केवल  मनोबल और उत्साह  की हानि होती है जिस से कालांतर में शुद्ध कृष्णवंशी शूरसैनी यादव राजाओं  के रक्त वाले पंजाब के सैनी भाईचारे का पूर्ण विनाश निश्चित है । सैनी भाईचारे के विचारशीलयुवक और वृद्ध दोनों सैनी कुल दीपक, स्वर्गीय सरदार करतार सिंह (पी एच डी), द्वाराव्यक्त की गई आपत्ति और इस चेतावनी को अतयंत गंभीरता से लें। 

पंजाब में सिख पंथ और आर्य समाज के प्रभावके कारण भी सैनी भाईचारे के जनसाधारण लोग अपनी जातीय पहचान के लिए इतने सजग नहीं हैं।ये प्रभाव अपने आप में पूर्णतः स्वस्थ हैं।  लेकिन इसके  फल सवरूप  जातीय इतिहास के प्रति उनकी तुलनात्मक अरुचि का शोषण पंजाब के बाहर के छदम सैनीसंगठनो ने  और अनैतिक राजनीतिकारों ने  भरपूर किया है।   

एक हज़ार साल तक मुसलमान हकूमत से युद्धकरके और हर तरह का अत्याचार सह कर सैनी पहचान क्या इस दिन के लिए बचाई गयी थी कि दोकौड़ी के स्वार्थी वोट बैंक के भूखे टट्ट पुँजिये नेता  उसे खैरात की तरह अन्य समूहों में बाँट दें, जोरक्त, सामाजिक स्तर और संस्कृति तीनो से सैनियों से बिलकुल अलग हैं?  और जो अपने स्वार्थ सिद्ध करने के लिए सैनियों कीचिर काल से चलती आ रहे इतिहास और पहचान को अपनी सुविधा के अनुसार तोड़ते और मरोड़ते हैं?

अगर ये लोग जातिवाद के विरुद्ध सच मेंलड़ रहे होते तो पंजाब में बहुत और स्थानीय जातियां हैं जो तथा कथित ऊंची जातियों केव्यवहार से तंग आकर ईसाई मत कि तरफ भाग रही हैं। । पहले इन जातियों को गले लगाएं जोमलेछ धर्म परिवर्तन गिरोहों द्वारा भ्रमित और शोषित हो रही हैं। उत्तरप्रदेश और राजस्थानकी अपनी सुविधा अनुसार चुनी हुई जातियों की समाज सेवा का स्वांग अपनी खोटी राजनीतिको सिद्ध करने के लिए उसके बाद में रचें ।

 "वसुधा एव कुटुम्भकम"  और "मानस की जात सभै  एको पहचानबो"  की वैदिक और सिख परिदृष्टि से भी अगर सोचा जायेतो भी पंजाब की स्थानीय सर्व समाज की जातियां जैसे छिम्बा, सुनियारा, खत्री, अरोड़ा,ब्राह्मण,  तरखान, जट्ट, जुलाहा, झीर, मज़हबीसिख इत्यादि  सैनियों के यू पी और राजस्थानकी सुविधा अनुसार चुनी हुई  जातियों से अधिकनिकट हैं क्यों कि हम कम से कम एक हज़ार वर्ष से इनके साथ रह रहे हैं और इनके दुख औरसुख बांटते आ रहे है।  । पहले अपने  पड़ोस वाली पंजाबी जातियों को  अपना  भाईबनायें और फिर दूसरे प्रदेशों के लोगों के कल्याण की चिंता करें जो कि अपने हित साधनेके लिए पूर्ण रूप से सक्षम हैं। दान और समाजसेवा का कार्य सदा घर से प्रारम्भ होताहै।  छदम समाज सेवा का आडम्बर न करें।  

 और ना ही वैदिकऔर पौराणिक साहित्य में , भाई गुरदास जी की वारों में, श्री गुरु ग्रन्थ साहिब जी में,और अन्य सिख साहित्यिक कृतियों में अति सम्मानित और पूजित अवतारों और महापुरुषों काघोर अपमान करने वाले, बर्तानवी औपनिविषेक  सत्ताऔर ईसाई मिशनरीओं  द्वारा पोषित, जोति राओ फुले,को चालाकी से सैनी बता कर, उसका हर स्थान पर फोटोशॉप किया हुआ जाली चित्र लगाकर, पूरे सैनी भाईचारेका आध्यात्मिक नाश करें। जोति राओ फुले सैनी नहीं माली जाति से था । अनेक विद्वानोंके अनुसार यह एक  क्रिप्टो-क्रिस्चियन (या गुप्तईसाई) था जिसने अनपढ़ हिन्दुओं को अपने अराध्ये देवों और अवतारों को गाली दे कर इसाहमसीह को छदम रूप से "बलि राज" बनाकर पूजने की प्रेरणा दी (देखें "गुलामगिरी", जोति राओ फुले, पृष्ठ 62, सम्यक प्रकाशन, नई दिल्ली , 2016) । स्वयं माली भाईचारेको इसकी शिक्षाओं का अनुसरण नहीं करना चाहिए। ईसाई चर्चों  द्वारा  अश्वेत लोगों का शोषण करने वाली  रंग भेदी ट्रांस अटलांटिक दास प्रथा का सञ्चालनकरने का इतिहास किसी से ढका छुपा नहीं है ।स्वयं पश्चिम के लोग अब ईसाइयत को भारी संख्यामें त्याग चुके हैं और योग, वेदांत, और भारतीय आध्यात्म की ओर आकर्षित हो रहे हैं।जोति राओ फुले की भागवत  विरोधी  शिक्षाओं में बहुत अंतर्विरोध और अंतर्द्वंद थेजिसे  इसने कभी सुलझाया नहीं ।  माली भाईचारे में इसका बढ़ चढ़ कर प्रचार ईसाई मिशनरीओंद्वारा  भारत के स्वदेशी धार्मिक पंथों के विरुद्धएक अंतर्राष्ट्रीय षड़यंत्र का एक अंग प्रतीत होता है।

जिस देश और काल में फुले का जन्म हुआउस समय महाराष्ट्र में सैनी भाईचारे का किसी को नाम  तक नहीं पता था और स्वयं फुले ने अपने आप को सैनीभाईचारे से कभी नहीं जोड़ा। सैनियों को मूर्ख बनाकर अपना उल्लू सीधा करना अब त्याग दें।सं 2001 में भी होशीआरपुर के सैनियों ने शठ राजनैतिक  संघठनो द्वारा  जोति राओ फुले को सैनियों से जोड़ने पर कड़ी आपत्तिप्रकट की थी और न्यायिककार्यवाही की चेतावनी भी दी गई थी (देखें "दी ट्रिब्यून" , नवंबर 3 , सं2001 )। । ऐसे गुरमत विरोधी, सनातन और सिख पंथ के विनाश करने वाले काम और दुष्प्रचारये सत्ता के लोभी टटपूंजिये नेता छोड़ दें । ये उनको चेतावनी है।  नहीं तो पंजाब की चिरप्राचीन आर्य संस्कृति और सिखपंथ में सम्मानित श्रद्धेय और महापुरुषों को अपमानित करने वाले विचारकों का प्रचारकरने वालों का स्वेच्छा  से या अनायास ही शुद्धिकरणपंजाब के वीर  लोग भलीभांति जानते हैं। 

शूरसैनी और सामाजिक समरसता

सामाजिक समरसता की शिक्षा जादो बंसीसैनियों या शूरसैनियों की संस्कृति में प्राचीन काल से निहित है। इसके लिए  उन्हे विदेशिओं और विधर्मियों द्वारा पोषित छदमसमाज सुधारकों का अनुयायी बन ने की आवश्यकता नहीं है। 

"विद्याविनयसम्पन्नेब्राह्मणे गवि हस्तिनि ।

शुनि चैव श्वपाकेच पण्डिता: समदर्शिन: ।। "

(भागवद गीता, परिछेद 5, श्लोक 18 )

अर्थात:

"ज्ञानी महापुरुष विद्या-विनययुक्तब्राह्मण में और चाण्डाल में तथा गाय, हाथी एवं कुत्ते में भी समरूप परमात्मा को देखनेवालेहोते हैं।"

पूरे संसार को वेदांत की   यह शिक्षा, जिसमे ब्राह्मण और चांडाल को सम दृष्टिसे देखा जाता है , देने वाला यह व्यक्ति कोई और नहीं सैनियों का प्राचीन और सर्व पूजितपूर्वज या जठेरा शूरसेनो यदु श्रेष्ठः , यानी शूरसैनी यादवों में सर्व श्रेष्ठ , श्रीकृष्ण ही  थे। 

सिख आदि ग्रन्थ में दूसरे  गुरु-पातशाह, श्री अङ्गद देव जी, ने वेदांत और भागवदगीता की इस सीख को संत भाषा में ऐसे परभाषित किआ है:

एक क्रिसनंसरब देवा देव देवा त आतमा ॥

आतमा बासुदेवस्यिजे को जाणै भेउ ॥

नानक ता कादास है सोई निरंजन देउ ॥

(आदि ग्रन्थसाहिब जी, अंग 469 )

अद्वैत वेदांत  द्वारा प्रतिपादित पारमार्थिक परिदृष्टि  से तो शूरसैनी यादवों में सर्व श्रेष्ठ , श्री कृष्ण,के दिव्य आलिंगन में पूरा ब्रह्माण्ड ही  आताहै और वह इस सृष्टि के सभी भूतों के अनादि पूर्वज हैं । किन्तु व्यवहारिक ओर लौकिकपरिदृष्टि से उनके वंशज केवल जादो बंसी   सैनीऔर उनसे निकली हुई अनेक शाखाओं के लोग ही है। सैनियों के लिए श्री कृष्ण की वंदना करने के लिए उन्हें परमात्मा समझना भी आवश्यकनहीं है। सैनियों के लिए श्री कृष्ण और उनके जीवन सिद्धांत केवल इसी लिए सर्व मान्यहैं क्योंकि वह सैनियों के सर्व पूज्य और सर्वमान्य जठेरा हैं।  सैनियों के जठेरों के देवस्थल पंजाब में उनके गांवगांव में हैं और जहाँ अन्य  जठेरों की पूजाअर्चना से पहले उनके सर्वोत्तम जठेरे शूरसैनी श्री कृष्ण की पूजा ही होती है।

प्राचीन काल में शूरसैनियों द्वारा शासितवृष्णि संघ भारत में ही नहीं पूरे विश्व में लोकतंत्र की सर्व प्रथम परिकल्पना थी। 

पंजाब, हिमाचल, जम्मू , और पश्चिमोत्तरहरयाणा में 500 से भी ऊपर ऐसे गांव हैं जिनमे सैनियों का पूर्ण वर्चस्व है और वह इनगाँवों के सबसे बड़े ज़मींदार, और यहाँ के लम्बड़दार या चौधरी हैं ।  इन गाँवो में अन्य  जातियों के लोग भी पाए जाते हैं।  इन गांवों में अगर सैनी चाहें तो किसी और जाति केव्यक्ति को अपने से पूछे बिना सांस भी न लेने दें।  लेकिन आप इन गाँवों में से कभी भी दलितों  या किसी और सामाजिक रूप से निर्बल भाईचारे के साथहुए उत्पीड़न का समाचार नहीं सुनेंगे।  ऐसा इसलिए कि अत्याचार करना और सहना या सामाजिक उंच नीच करना, दुर्योधन के राजभोज को ठोकरमार कर दास विदुर का साग खाने वाले,  श्री कृष्णके वंशजों के जातीय संस्कारों में हो ही नहीं सकता। सैनियों ने भारी  मात्रा में सिखी को अपनाया ही इस लिए क्योंकि सिखीके सिद्धांत यादवों के पुरातन आध्यात्मिक मूल्यों के अनुकूल हैं। 

पूरे संसार को ब्रह्म की एकता और अच्‍छेद्यताकी और लोकतंत्र की शिक्षा देने वाले के वंशजों को सामाजिक सम रसता क्या किसी विधर्मीसे सीखने की आवश्यकता है? ऐसा सोचना भी परिहास का विषय होगा ।

अंतिम शब्द

पंजाब का जादोबंसी सैनी  भाईचारा नैतिकता विहीन राजनीति से प्रेरित  छदम सैनी संगठनों के दुष्प्रचार को अब और स्वीकारनहीं करेगा। अगर अपने पूर्वजों की ख्याति का ज्ञान उपार्जन और रक्षा  जातिवाद होता तो दसवीं पातशाही गुरु गोबिंद सिंहजी महाराज रामावतार और कृष्णावतार जैसी कृतियां लिखवाकर उन्हे दशम दरबार में क्योंसंकलित करवाते और अपने खालसे को उसे क्यों पढ़ाते ? सैनियों के पास कृष्णावतार की रक्तधारा और संस्कृति दोनों नैसर्गिक रूप से हैं । वह उसका परित्याग क्यों करें?  

अपने वीर, सदाचारी, बलिदानी, और त्यागीजठेरों की ख्याति और उनके धार्मिक मूल्य ही क्षत्रिय कुलों की सब से बहुमूल्य सम्पतिहोती हैं । इनके बिना क्षत्रिय रक्त निस्तेज  और निर्वीर्य हो जाता है । जिससे सर्व समाज में  आदर्शहीनता , पाप, और  अनाचार बढ़ता है (केवल उस क्षत्रिय जाति में ही नहीं)।बलभद्र की सौगंध हम  इन्हे  मिटने या इनमे किसी को  प्रक्षेप नहीं करने देंगे।    

धन्यवाद!

सौजन्य से:

जादो बंसी सैनी क्षत्रिय राजपूत  महा सभा (पंजाब, हिमाचल, जम्मू , और हरयाणा )

 

Legal Disclaimer: Wedo not in any shape or form endorse the practice of Sati as defined in thevarious legal statutes of government of India. Accounts of Sati Mother Goddess worshipgiven in this article are for the sole purpose of faithfully documenting thesocio-anthropological and ethnographic data in respect of Shoorsaini or  Saini community of Punjab, strictly within anacademic framework. Sati Goddess worship, with its concomitant heroic and supernaturalmotifs, was widely popular among all Rajput descent tribes of Punjab andRajputana. Accordingly, each Saini village has mandatorily a shrine for SatiMata Goddess, which is supposed to ward off ill-luck and is a place marked forobserving rituals for all auspicious lifecycle events like childbirth, tonsure,thread wearing ceremonies, etc. It is also worth noting that Sati worshippractice as currently extant in the community too in no way mimics, abets, orglorifies the practice of Sati as defined under  under THECOMMISSION OF SATI (PREVENTION) ACT, 1987.

Editorial Staff Saini Online,
Oct 27, 2022, 4:54 AM
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